कविता:-हक़ हम्हारा

कविता:-हक़ हम्हारा

कोई नहीं साथमें उनका दोस्त है
बन्दुक और गोली कड़ी ठण्ड
घने जन्ग्गल में रहते है वो बाहादुर फौजी
इसलिए हम मना पाते है होली और दिवाली
इसलिए हम मना पाते है होली और दिवाली

खाना मिलता नहीं ढंगका ना उनको
मिलता है आराम से सोना
सब रहते है अपने ही मस्तीमे कौन सुनेगा
फौजी का रोना धोना
कौन सुनेगा फौजी का रोना धोना

इतना बड़ा बजड है देसका
न जाने कौन खाता है
फौजी कुच बोले तो
फौजी को फौज से निकाल दिया जाता है
फौज से निकाल दिया जाता है

अपना खून पसीना बहाके बना फौजी
रोज खेल रहा है अपने जान से
दो टक्के का गुंडा नेता बनके
घूम रहा है बड़े शान से
फूल माला नेता को नहीं
फौजी को लगाना चाइये
क्योंकि उसने न होली न दीवली मनाई है
उसने न होली न दीवली मनाई है

बॉर्डर पे खड़े बहादुर फौजी
ओह दुश्मनो के हाथ रोज मर रहे है
नेता आलीशान बंगले में रहके
जाती धर्म का राजनीती कर रहे है
नेता जाती धर्म का राजनीती कर रहे है

गलती हम्हारी है अच्छे लोग आज
पॉलिटिक्स से दूर जा रहे है 
इसलिए चोर गुण्डे आज राजनीती में आरहे है
समज नहीं आता आज देस किधर जारहा है
समज नहीं आता आज देस किधर जारहा है

सवाल पूछना हक़ है हम्हारा
कोई सवाल से ना भागो
भाग रहा है कोई सवाल से तो
जागो युवा जागो जागो युवा जागो
जागो युवा जागो जागो युवा जागो
जय हिन्द जय भारत

लेखक
मंजीत छेत्री
तेज़पुर असम

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