कविता:-ज़िन्द्दगी एक सफर



कविता:-ज़िन्द्दगी एक सफर
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खानेको नहीं था घरमे कुच
तो स्टेशन में खाली बोतल खोजता था
इतने लोग कहा आते जाते है
दिनभर एहि बात सोचता था
दिनभर एहि बात सोचता था

ट्रैन को देख मुझे भी कही
जानेका मन करता था
लोगोको खाते देख मुझे भी
कुच खानेका मन करता था
पैसे नहीं थे मेरे पास तो
चुप चाप आगे बड़ता था
चुपचाप आगे चलता था

किसीकी सामान चोरी होती तो
हमें ही लोग डाटते थे
धक्के मारके कुच लोग हमें
ट्रेन से खदेड़ते थे
पुलिस वाला भी आते थे तो
हमें ही मारते थे हमें ही मारते थे

सोचते सोचते ज़िन्द्दगीको
में सपनो में खोजाता था
आँखे खुलती तो चारो और
अँधेरा हो जाता था
चुने हुवे खाली बोतल लेके 
फिर घर लौट जाता था
फिर घर लौट जाता था

बड़ा होगया आज में मुझे
हर चीजका खबर है
आज जाके पता चला मुझे
ज़िन्द्दगी एक सफर है
ज़िन्द्दगी एक सफर है


लेखक
मंजीत छेत्री
तेज़पुर असम


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